Sanskrit shlok with hindi Meaning 100+ लोकप्रिय संस्कृत श्लोक

Sanskrit shlok with hindi Meaning | 100+ लोकप्रिय संस्कृत श्लोक

Sanskrit shlok :- संस्कृत जैसा कि आप  सभी जानते ही होगें यह एक ऐसी भाषा हैं जिसको सबसे पुरानी भाषा में एक माना जाता हैं और हमारें भारत देश के जितने भी वेद पुराण लिखे गये वह सभी संस्कृत भाषा में ही हैं। और यह सभी श्लोको के माध्यम से लिखा गया हैं तो इसी लिए आज हम आपको कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण श्लोक देगें और उनका हिन्दी में अनुवाद भी करेगें जिससे आपको आसानी से और जल्दी समझ आ जाये।

चलिए आपको श्लोक देने से पहले श्लोक क्या हैं इसका शाब्दिक अर्थ क्या हैं वह समझा देते हैं जिससे कि आपको कोई भी श्लोक पढ़ने और समझने में कोई भी समस्या का सामना न करना पड़े।

श्लोक की परिभाषा :- संस्कृत की दो पंक्तियों की रचना, जिनके द्वारा किसी प्रकार का कथोकथन किया जाता है, श्लोक कहलाता है।

श्लोक का शाब्दिक अर्थ

1. आवाज, ध्वनि, शब्द।

2. पुकारने का शब्द, आह्वान, पुकार।

3. प्रशंसा, स्तुति।

4. कीर्ति, यश।

5. किसी गुण या विशेषता का प्रशंसात्मक कथन या वर्णन। जैसे—शूर-श्लोक अर्थात् शूरता का वर्णन।

Sanskrit shlok with hindi Meaning

 

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

अर्थ:-
जिनका हृदय बड़ा होता है, उनके लिए पूरी धरती ही परिवार होती है और जिनका हृदय छोटा है, उनकी सोच वह यह अपना है, वह पराया है की होती है।

अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्। अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम् ॥

अर्थ:-:
आलसी व्यक्ति को विद्या कहां, मुर्ख और अनपढ़ और निर्धन व्यक्ति को मित्र कहां, अमित्र को सुख कहां।

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः। यत्र तास्तु न पूज्यंते तत्र सर्वाफलक्रियाः ॥

अर्थ:-
जहाँ पर हर नारी की पूजा होती है वहां पर देवता भी निवास करते हैं और जहाँ पर नारी की पूजा नहीं होती, वहां पर सभी काम करना व्यर्थ है।

किन्नु हित्वा प्रियो भवति। किन्नु हित्वा न सोचति।। किन्नु हित्वा अर्थवान् भवति। किन्नु हित्वा सुखी भवेत् ॥

अर्थ:-
किस चीज को छोड़कर मनुष्य प्रिय होता है? कोई भी चीज किसी का हित नहीं सोचती? किस चीज का त्याग करके व्यक्ति धनवान होता है? और किस चीज का त्याग कर सुखी होता है ?

 

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः । नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।

अर्थ:-

मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसमे बसने वाला आलस्य हैं । मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका परिश्रम हैं जो हमेशा उसके साथ रहता हैं इसलिए वह दुखी नहीं रहता ।

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् । एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥

अर्थ:-

रथ कभी एक पहिये पर नहीं चल सकता हैं उसी प्रकार पुरुषार्थ विहीन व्यक्ति का भाग्य सिद्ध नहीं होता ।

vidya sanskrit shlok

 

नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:। नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥

अर्थ:-

विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है ।

गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा। अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते॥

अर्थ:-

विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है ।

Geeta shlok in sanskrit

 

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥

अर्थ:-जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है ।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥

अर्थ:- निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

अर्थ:- :श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु ‘लोक’ शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।

सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः। सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥

अर्थ:- उस संसार में सत्य ही ईश्वर है धर्म भी सत्य के ही आश्रित है, सत्य ही सभी भाव-विभव का मूल है, सत्य से बढ़कर और कुछ भी नहीं है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थ:- हिंदी अनुवाद: कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं… इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो।

Small easy sanskrit shlok

 

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्र तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति॥

अर्थ:- जिसके पास स्वयं बुद्धि नहीं है, उसका शास्त्र भला क्या कर सकते हैं? आँखों से अन्धे व्यक्ति के लिए भला शीशा क्या कर सकता है?

उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥

अर्थ:- परिश्रम करने से कार्य सिद्ध होते हैं केवल इच्छा करने से नहीं। क्योंकि सोते हुए शेर के मुख में पशु स्वयं प्रवेश नहीं करते अर्थात् उसे अपना शिकार परिश्रमपूर्वक ही करना पड़ता है।

 

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥

अर्थ:- प्रिय वचन बोलने से तो सभी प्राणी सन्तुष्ट हो जाते हैं, इसलिए प्रिय ही बोलना चाहिए। (प्रिय) वचन बोलने से कौन सी दरिद्रता आती है? अर्थात् प्रिय वचन बोलने से किसी भी प्रकार की धनहीनता नहीं आ सकती।

 

मूकं करोति वाचालं, पङ्गुं लङ्घयते गिरिम।
यत्कृपा तमहं वन्दे, परमानन्दमाधवम्॥

अर्थ:- जिसकी कृपा से गूंगे बोलने लगते हैं, जिसकी कृपा से लंगड़े पर्वतों को पार कर लेते हैं। उस परम माधव (ईश्वर) की वन्दना करता हूँ। (उक्त श्लोक में ईश्वर की महिमा का बखान किया गया है कि यदि ईश्वर की कृपा हो जाये

Sanskrit shlok on karma

 

न कृतत्व न कर्मणि लोकस्य सृजति प्रभु
न कर्मफलसयोग स्वभावस्तु पर्वतरते!!!

अर्थ:- परमेश्वर न तो मनुष्यो के कर्तव्य का, न कर्मो का और न कर्मफल के सयोंग का ही सर्जन करता है किन्तु ये सब स्वभाव से ही प्रवर्तित हो रहा हैं!!!) तो असमर्थ भी समर्थवान बन जाता है।

 

सन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगत:
योगयुक्तो मुनिब्रह्म नचिरेणाधीगच्छति!!!

अर्थ:- भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मो का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता परन्तु भक्ति में
लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को
प्राप्त कर लेता हैं!!!

 

तत्कर्म यत्र बंधाय सा विद्या सा विमुक्तये
आयासायापर कर्म विद्यानय शिल्पनैपुणम्!!!

अर्थ:- कर्म वही हैं जो बंधन का कारण न हो और विद्या भी वही हैं जो मुक्ति की साधिका हो इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विधाय कला कौशल मात्र ही हैं

 

कर्मणो ह्वपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विक्रमण:
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:!!!

अर्थ:- कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये क्योंकि कर्म की गति गहन हैं!!!

 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।

अर्थ:- भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में तेरा अधिकार है। कर्म के फल का अधिकार तेरे पास नहीं है। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और न ही कर्म न करने के भाव मन में ला। अतः कर्म कर फल की चिंता मत कर।

 

अचोद्यमानानि यथा, पुष्पाणि फलानि च।
स्वं कालं नातिवर्तन्ते, तथा कर्म पुरा कृतम्।

अर्थ:- जैसे फूल और फल बिना किसी प्रेरणा से स्वतः समय पर उग जाते हैं, और समय का अतिक्रमण नहीं करते, उसी प्रकार पहले किये हुए कर्म भी यथासमय ही अपने फल (अच्छे या बुरे) देते हैं।
अर्थात कर्मों का फल अनिवार्य रूप से मिलता है।

 

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।

अर्थ:- मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसमे बसने वाला आलस्य हैं । मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका परिश्रम हैं जो हमेशा उसके साथ रहता हैं इसलिए वह दुखी नहीं रहता ।

 

Note –  हमारे द्वारा दिये गयें sanskrit mein shlok आपको कैसे लगें हमें Comment box में comment करके जरूर बतायें और अगर आपको कोई भी किसी प्रकार को श्लोक चाहिए तो भी आप बता दें हम आपके लिए जल्द से जल्द आपको देने की कोसिस करेगें धन्यवाद।

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