Ras in hindi (रस) की परिभाषा:- रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनंद’। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे ‘रस’ कहा जाता है। भोजन रस के बिना यदि नीरस है, औषध रस के बिना यदि निष्प्राण है, तो साहित्य भी रस के बिना निरानंद है। यही रस साहित्यानंद को ब्रह्मानंद-सहोदर बनाता है। जिस प्रकार परमात्मा का यथार्थ बोध कराने के लिए उसे रस-स्वरूप ‘रसो वै सः’ कहा गया, उसी प्रकार परमोत्कृष्ट साहित्य को यदि रस-स्वरूप ‘रसो वै सः’ कहा जाय, तो अत्युक्ति न होगी। रस की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी गयी है– (1) सरति इति रसः। अर्थात जो सरणशील, द्रवणशील हो, प्रवहमान हो, वह रस है। (2) रस्यते आस्वाद्यते इति रस:। अर्थात जिसका आस्वादन किया जाय, वह रस है। साहित्य में रस इसी द्वितीय अर्थ- काव्यास्वाद अथवा काव्यानंद- में गृहीत है। जिस तरह से लजीज भोजन से जीभ और मन को तृप्ति मिलती है, ठीक उसी तरह मधुर काव्य का रसास्वादन करने से हृदय को आनंद मिलता है। यह आनंद अलौकिक और अकथनीय होता है। इसी साहित्यिक आनंद का नाम ‘रस’ है। साहित्य में रस काबड़ा ही महत्त्व माना गया है। साहित्य दर्पण के रचयिता ने कहा है- ”रसात्मकं वाक्यं काव्यम्” अर्थात रस ही काव्य की आत्मा है। काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का ‘स्थायी भाव’ ही रस-दशा को प्राप्त होता है। पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस रूप में परिणित हो जाता है। रस को ‘काव्य की आत्मा/ प्राण तत्व’ माना जाता है। उदाहरण- राम पुष्पवाटिका में घूम रहे हैं। एक ओर से जानकीजी आती हैं। एकान्त है और प्रातःकालीन वायु। पुष्पों की छटा मन में मोह पैदा करती हैं। राम इस दशा में जानकीजी पर मुग्ध होकर उनकी ओर आकृष्ट होते है। राम को जानकीजी की ओर देखनेकी इच्छा और फिर लज्जा से हर्ष और रोमांच आदि होते हैं। इस सारे वर्णन को सुन-पढ़कर पाठक या श्रोता के मन में ‘रति’ जागरित होती है। यहाँ जानकीजी ‘आलम्बनविभाव’, एकान्त तथा प्रातःकालीन वाटिका का दृश्य ‘उद्यीपनविभाव’, सीता और राम मेंकटाक्ष-हर्ष-लज्जा-रोमांच आदि ‘व्यभिचारी भाव’ हैं, जो सब मिलकर ‘स्थायी भाव’ ‘रति’ को उत्पत्र कर ‘शृंगार रस’ का संचार करते हैं। भरत मुनि ने ‘रसनिष्पत्ति’ के लिए नाना भावों का ‘उपगत’ होना कहा है, जिसका अर्थ है कि विभाव, अनुभाव और संचारीभाव यहाँ स्थायी भाव के समीप आकर अनुकूलता ग्रहण करते हैं। आचार्यों ने अपने-अपने ढंग के ‘रस’ को परिभाषा की परिधि में रखने का प्रयत्न किया है। सबसे प्रचलित परिभाषा भरत मुनि की है, जिन्होंने सर्वप्रथम ‘रस’ का उल्लेख अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ में ईसा की पहली शताब्दी के आसपास किया था। उनकेअनुसार ‘रस’ की परिभाषा इस प्रकार है- ‘विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:’- नाट्यशास्त्र, अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के अंग रस के चार अंग है- (1) विभाव (2) अनुभाव (3) व्यभिचारी भाव (4) स्थायी भाव। (1) विभाव :– जो व्यक्ति, पदार्थ अथवा ब्राह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक करता है, उन कारणों को ‘विभाव’ कहा जाता है। दूसरे शब्दों में– रस के उद्बुद्ध करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में लिखा है- ‘रत्युद्बोधका: लोके विभावा: काव्य-नाट्ययो:’ अर्थात् जो सामाज में रति आदि भावों का उदबोधन करते हैं, वे विभाव हैं। विभाव के भेद विभाव के दो भेद हैं- (क) आलंबन विभाव (ख) उद्दीपन विभाव। (क)आलंबन विभाव– जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते है, आलंबन विभाव कहलाता है। जैसे नायक-नायिका। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते है- आश्रयालंबन व विषयालंबन। जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन कहलाता है। जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण- यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय। (ख) उद्दीपन विभाव–जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्यीप्त होने लगता है, उद्दीपन विभाव कहलाता है। सरल शब्दों में– जो भावों को उद्दीप्त करने में सहायक होते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं। विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में लिखा है- ”उद्दीपनविभावास्ते रसमुद्दीपयन्ति ये” । जैसे- चाँदनी, कोकिल, कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि। (2) अनुभाव :– आलम्बन और उद्यीपन विभावों के कारण उत्पत्र भावों को बाहर प्रकाशित करनेवाले कार्य ‘अनुभाव’ कहलाते है। दूसरे शब्दों में– मनोगत भाव को व्यक्त करनेवाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते है। सरल शब्दों में– जो भावों का अनुगमन करते हों या जो भावों का अनुभव कराते हों, उन्हें अनुभव कहते हैं : ”अनुभावयन्ति इति अनुभावा:” । विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में अनुभाव की परिभाषा इस प्रकार दी है- ”उद्बुद्धं कारणै: स्वै: स्वैर्बहिर्भाव: प्रकाशयन् । लोके यः कार्यरूपः सोऽनुभावः काव्यनाट्ययो: ।।” अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है- (1) स्तंभ (2) स्वेद (3) रोमांच (4) स्वर-भंग (5 )कम्प (6) विवर्णता (रंगहीनता) (7) अश्रु (8) प्रलय (संज्ञाहीनता/निश्चेष्टता) । अनुभाव के भेद अतः अनुभाव के चार भेद है- …
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